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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद


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अमृत—(गले से लगाकर) प्यारी पूर्णा, डरो मत। ईश्वर चाहेगा तो बैरी हमारा बाल भी बॉंका न करा सकें। कल जो बरात यहॉँ आयेगी वैसी आज तक इस शहर मे किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी।
पूर्णा—मगर मैं क्या करुँ। मुझे मो मालूम होता है कि कल जरुर मारपीट होगी। चारों ओ से यह खबर सुन-सुन मेरा जी आधा हो रहा है। इस वक्त भी मुंशी जी के यहॉँ लाग जमा हैं।
अमृत—प्यारी तुम इन बातों को ज़रा भी ध्यान में न लाओं। मुंशी जी के यहॉँ तो ऐसे जलसे महीनों से हो रहे हैं और सदा हुआ करेंगे। इसका क्या डर। दिल को मजबूत रक्खो। बस, यह रात और बीच है। कल प्यारी पूर्णा मेरे घर पर होगी। आह वह मेरे लिए कैसे आन्नद का समय होगा।
पूर्णा यह सुनकर अपना डर भूल गयी। बाबू साहब को प्यारी की निगाहों से देखा और जब चलने लगे तो उनके गले से लिपट कर बोली—तुमको मेरी कसम, इन दुष्टों से बचे रहाना।
अमृतराय ने उसे छाती से लगा लिया और समझा-बुझाकर अपने मकान को रवाना हुए।
पहर रात गये, पूर्णा के मकान पर, कई पंडित रेश्मी बाना सजे, गले में फूलों का हार डाले आये विधिपूर्वक लक्ष्मी की पूजा करने लगे। पूर्णा सोलहों सिंगार किये बैठी हुई थी। चारों तरफ गैस की रोशनी से दिन के समान प्रकाश हो रहा था। कांस्टेबिल दरवाज़े पर टहल रहे थे। दरवाजे का मैदान साफ किया जा रहा था और शामियाना खड़ा किया जा रहा था। कुर्सियॉँ लगायी जा रही थीं, फर्श बिछाया गया, गमले सजसये गये। सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और सबेरा होते ही बारात अमृतराय के घर से चली।
बारात क्या थी सभ्यता और स्वाधीनता की चलती-फिरती तस्वीर थी। न बाजे का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगुलों की धों धों पों पों, न पालकियों का झुर्मट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेलपेल, न सोंटे बल्लमवालों की कतारा, न फुलवाड़ी, न बगीचे, बल्कि भले मानुषों की एक मंडली थी जो धीरे-धीरे कदम बढ़ाती चली जा रही थी। दोनों तरफ जंगी पुलिस के आदमी वर्दियॉँ डॉँटे सोंटे लिये खड़े थे। सड़क के इधर-उधर झुंड के झुंड आदमी लम्बी-लम्बी लाठियॉँ लिये एकत्र और थे बारात की ओर देख-देख दॉँत पीसते थे। मगर पुलिस का वह रोब था कि किसी को चूँ करने का भी साहस नहीं होता था। बारातियों से पचास कदम की दूरी पर रिजर्व पुलिस के सवार हथियारों से लैंस, घोड़ों पर रान पटरी जामये, भाले चमकाते ओर घोड़ों को उछालते चले जाते थे। तिस पर भी सबको यह खटका लग हुआ था कि कहीं पुलिस के भय का यह तिलिस्म टूट न जाय। यद्यपि बारातियों के चेहरे से घबराहट लेशमात्र भी न पाई जाती थी तथापि दिल सबके धड़क रहे थे। ज़रा भी सटपट होती तो सबके कान खड़े हो जाते। एक बेर दुष्टों ने सचमुच धावा कर ही दिया। चारों ओर हलचल मचगी। मगर उसी दम पुलिस ने भी डबल मार्च किया और दम की दम मे कई फ़सादियों की मुशके कस लीं। फिर किसी को उपद्रव मचाने का साहस न हुआ। बारे किसी तरह घंटे भर में बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची। यहॉँ पहले से ही बारातियों के शुभागमन का सामान किया गया था। ऑंगन में फर्श लगा हुआ था। कुर्सियॉँ धरी हुई थीं ओर बीचोंबीच में कई पूज्य ब्रह्मण हवनकुण्ड के किनारे बैठकर आहुति दे रहे थे। हवन की सुगन्ध चारों ओर उड़ रही थी। उस पर मंत्रों के मीठे-मीठे मध्यम और मनोहर स्वर जब कान में आते तो दिल आप ही उछलने लगता। जब सब बारती बैठ गये तब उनके माथे पर केसर और चन्दन मला गया। उनके गलों में हार डाले गये और बाबू अमृतराय पर सब आदमीयों ने पुष्पों की वर्षा की। इसके पीछे घर मकान के भीतर गया और वहॉँ विधिपूर्वक विवाह हुआ। न गीत गाये गये, न गाली-गलौज की नौबत आयी, न नेगचार का उधम मचा।

भीतर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियॉँ और सोंटे लिए गुल मचा रहे थे। पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के चौगिर्द खड़े थे। इसी बची में पुलिस का कप्तान भ आ पहुँचा।उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जाय। और उसी दम पुलिसवालों ने सोंटों से मारमार कर इस भीड़ को हटाना शुरु किया। जंगी पुलिस ने डराने के लिए बन्दूकों की दो-चार बाढ़े हवा में सर कर दी। अब क्या था, चारो ओर भगदड़ मच गयी। लोग एक पर एक गिरने लगे। मगर ठीक उसी समय ठाकुर जोरावर सिंह बाँकी पगिया बॉँधें, रजपूती बाना सजे, दोहरी पिस्तौल लगाये दिखायी, दिया। उसकी मूँछें खड़ी थी। ऑंखों से अंगारे उड़ रहे थे। उसको देखते ही वह लोब जो छितिर-बिति हो रहे थे फिर इकट्ठा होने लगो। जैसे सरदार को देखकर भागती हुई सेना दम पकड़ ले। देखते ही देखते हज़ार आदमी से अधिक एकत्र हो गये। और तलवार के धनी ठाकुर ने एक बार कड़क कर कहा—‘जै दुर्गा जी की वहीं सारे दिलों में मानों बिजली कौंध गयी, जोश भड़क उठा। तेवरियों पर बल पड़ गये और सब के सब नद की तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े। जंगी पुलिसवाले भी संगीने चढ़ाये, साफ़ बॉँधे, डटे खड़े थे। चारों ओर भयानक सन्नाटा छाया हुआ था। धड़का लगा हुआ था कि अब कोई दम में लोहू की नदी बहा चाहती है। कप्तान ने जब इस बाढ़ को अपने ऊपर आते देखा तो अपने सिपाहियों को ललकारा और बड़े जीवट से मैदान में आकर सवारों को उभारने लगा कि यकायक पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी ज़मीन पर गिर पड़ी मगर घाव ओछा लगा। कप्तान ने देख लिया था। कि यह पिस्तौल जोरावर सिंह ने सर की है। उसने भी चट अपनी बन्दूक सँभाली ओर निशाने का लगाना था कि धॉँय से आवाज़ हुई ओर जोरावर सिंह चारों खाने चित्त जमीन पर आ रहा। उसके गिरते ही सबके हियाव छूट गये। वे भेड़ों की भॉँति भगाने लगे। जिसकी जिधर सींग समाई चल निकला। कोई आधा घण्टे में वहॉँ चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया।

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